HI/Prabhupada 0820 - गुरु का मतलब है जो भी वे अनुदेश देंगे, हमें किसी भी तर्क के बिना स्वीकार करना है



Lecture on SB 5.5.2 -- Vrndavana, October 24, 1976

तो अगर तुम वास्तव में तपस्या करना चाहते हो, तो तुम्हे एक व्यक्ति के अाश्रय में जाना होगा जिसने पहले से ही तपस्या की है, तपो दिव्यम (श्रीमद भागवतम ५.५.१) | तो फिर तुम समझोगे । महत सेवाम । और वहाँ तुम्हे सेवा करनी है । विनम्रता से, सेवा, सेवया । तुम महात्मा को प्रश्न कर सकते हो, चुनौती से नहीं, लेकिन प्रणिपात और सेवा से । अन्यथा, तुम्हे सवाल करने का कोई अधिकार नहीं है । जैसे यह आदमी रूप गोस्वामी के पास गया । समय बर्बाद करने का उसका कोई अधिकार नहीं है । तो वास्तव में यह चर्चा, निर्देश, गुरु और शिष्य के बीच की बात है, जहाँ समर्पण है । अन्यथा कोई जरूरत नहीं है । आजकल हम कुछ बैठक आयोजित करते हैं ।

कुछ साधारण लोग, वे सुनने के लिए आते हैं । लेकिन वैसी चर्चा चैतन्य महाप्रभु नें कभी नहीं की । कभी नहीं । क्योंकि वे बाहरी लोग हैं, वे विनम्र नहीं हैं । वे तमाशा देखने के लिए आते हैं । वे कुछ सीखने के लिए नहीं आते हैं । इसलिए चैतन्य महाप्रभु नें कोई बड़ी बैठक कभी नहीं की । बड़ी बैठक में वे मौजूद थे, लेकिन कीर्तन, संकीर्तन । वे जगन्नाथ मंदिर में चार घंटे के लिए शाम को दैनिक बड़ी बैठक में थे, लेकिन पूरी अवधि हरे कृष्ण के कीर्तन में लगे हुए थे । लेकिन जब सार्वभौम भट्टाचार्य या प्रकाशानन्द सरस्वती या रामानंद राय की तरह कोई व्यक्ति होता, ऐसे महान व्यक्ति, वे चर्चा करते । अन्यथा, वे चर्चा नहीं करते थे ।

चर्चा की कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि वे विनम्रता के साथ उनके पास नहीं जाते थे । वे सोचते हैं... जैसे कृष्ण और अर्जुन... जब तक अर्जुन सोच रहा था की "कृष्ण मेरे मित्र हैं । मैं उसी स्तर पर बहस करूँगा ।" तब कृष्ण बहुत गंभीरता से बोल रहे थे | लेकिन जब अर्जुन समझ गया की "इस तरह की बात का कोई लाभ नहीं है," तो फिर वह उनका शिष्य बन गया: शिष्यस ते अहम शाधि माम प्रपन्नम (भ.गी. २.७) | "कोई और अधिक चर्चा नहीं । अब मैं अापको गुरु के रूप में स्वीकार करता हूँ ।"

गुरु का मतलब है जो भी वे अनुदेश देंगे, हमें किसी भी तर्क के बिना स्वीकार करना है । वैदिक ज्ञान है इस तरह का है । तुम अर्थघटन नहीं कर सकते । तथा रूप, तुम्हे स्वीकार करना होगा । इसी प्रकार गुरु के शब्द को भी तुम्हे स्वीकार करना होगा । कोई तर्क नहीं । यही वैदिक ज्ञान है । यही वैदिक प्रणाली है । यह उदाहरण हमने कई बार दिया है: जैसे गाय का गोबर । गाय का गोबर एक जानवर का मल है । तो एक जानवर का मल सबसे अपवित्र बात है । जैसे ही आप छूते हो, खुद के मल को भी... तुम बहुत विद्वान या भक्त हो सकते हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि तुम खुद के मल को छू सकते हो और शुद्ध रहोगे । नहीं । तुरंत तुम्हे नहाना होगा ।

खुद का, दूसरों की क्या बात करें । लेकिन वैदिक शिक्षा में हम देखते हैं कि गोबर, यह भी एक जानवर का मल है, आदमी की तुलना में निम्न पशु, और यह शुद्ध है, यह कहा जाता है । तो तुम्हे शुद्ध स्वीकार करना होगा । कोई तर्क नहीं की "इस तरह का मल अशुद्ध है । यहां तक ​​कि मेरे आध्यात्मिक गुरु का मल भी अशुद्ध है । कैसे पशु गाय का गोबर शुद्ध होता है ?" लेकिन क्योंकि यह वेदों में कहा जाता है कि यह शुद्ध है, तुम्हे स्वीकार करना होगा।

इसी तरह, शंख, यह एक जानवर की हड्डी है । हड्डी, अगर किसी भी मृत शरीर की हड्डी को तुम छूते हो, तो तुम्हे स्नान लेना होगा, तुरंत, शुद्ध होने के लिए । लेकिन यह, यह हड्डी अर्च विग्रह के कक्ष में रखा जाता है । हम दैनिक शंख बजाते हैं - क्योंकि वैदिक शिक्षा है । तो कोई तर्क नहीं है । अगर तुम वैदिक शिक्षा को स्वीकार करते हो, तो तुम्हे यथा रूप इसे स्वीकार करना होगा ।