HI/Prabhupada 0937 - कौआ हंस के पास नहीं जाएगा । हंस कौए के पास नहीं जाएगा



730425 - Lecture SB 01.08.33 - Los Angeles

तो हैं, पशुओं में भी, भाग हैं । हंस वर्ग और कौवा वर्ग । प्राकृतिक विभाजन । कौवा हंस के पास नहीं जाएगा । हंस कौए के पास नहीं जाएगा । इसी प्रकार मानव समाज में, कौवे वर्ग के पुरुष और हंस वर्ग के पुरुष हैं । हंस वर्ग के पुरुष यहाँ आएँगे क्योंकि यहाँ सब कुछ स्पष्ट है, अच्छा । अच्छा तत्वज्ञान, अच्छा भोजन, अच्छी शिक्षा, अच्छे कपड़े, अच्छा मन, सब कुछ अच्छा । और कौवे वर्ग के पुरुष, वे फलाना क्लब में जाऍगे, फलाना पार्टी में, नग्न नृत्य में, कई चीज़े । तुम समझ रहे हो ? तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है हंस वर्ग के व्यक्तिओ के लिए । कौवे वर्ग के व्यक्तिओ के लिए नहीं । लेकिन हम कौवों को हंस में बदल सकते हैं । यही हमारा तत्वज्ञान है ।

जो एक कौवा था अब हंस की तरह तैर रहा है । हम ऐसा कर सकते हैं । यही कृष्ण भावनामृत का लाभ है । तो जब हंस कौवे बन जाते हैं तो यह भौतिक दुनिया है । यही कृष्ण का कहना है: यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर भवति (भ.गी. ४.७) । जीव कैद है इस भौतिक शरीर में अौर वह अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करने की कोशिश कर रहा है, एक के बाद एक शरीर, एक के बाद एक शरीर, एक के बाद एक शरीर । यह स्थिति है । और धर्म मतलब धीरे-धीरे कौवों को हंस में बदलना । यही धर्म है । जैसे कोई हो सकता है, रह सकता है, बहुत,अनपढ़ असभ्य हो सकता है, लेकिन वह शिक्षित, सुसंस्कृत आदमी में परिवर्तित किया जा सकता है । प्रशिक्षण के द्वारा, शिक्षा के द्वारा । तो यह संभावना है मनुष्य जीवन में ।

मैं एक कुत्ते को भक्त बनने के लिए प्रशिक्षित नहीं कर सकता । यह मुश्किल है । यह भी किया जा सकता है । लेकिन मैं इतना शक्तिशाली नहीं हूँ । जैसे चैतन्य महाप्रभु नें किया था । जब जंगल से गुजर रहे थे, झारिखंड़ से, बाघ, सांप, हिरण, सभी जानवर, वे भक्त बन गए । वे भक्त बन गए । तो मेरे लिए संभव था, मतलब, चैतन्य महाप्रभु के लिए... क्योंकि वे स्वयं भगवान हैं । वे कुछ भी कर सकते हैं । हम ऐसा नहीं कर सकते हैं । लेकिन हम मानव समाज में काम कर सकते हैं । कोई फर्क नहीं पड़ता, कितना भी गिरा हुअा मनुष्य क्यों न हो । अगर वह हमारे अनुदेश का अनुसरण करता है तो वह बदला जा सकता है । यही धर्म कहा जाता है ।

धर्म मतलब किसी को उसकी मूल स्थिति में लाना । यही धर्म है । तो स्तर अलग अलग हो सकता है । लेकिन मूल स्थिति है कि हम भगवान के अंशस्वरूप हैं, अौर जब हम समझते हैं कि हम भगवान के अंशस्वरूप हैं, यह हमारे जीवन की वास्तविक स्थिति है । यही ब्रह्म-भूत चरण है (श्रीमद भागवतम ४.३०.२०), अपने ब्रह्म बोध को, पहचान को, समझना ।

तो कृष्ण अाते हैं ... यह स्पष्टीकरण... जैसे कुंती कहती हैं कि: अपरे वसुदेवस्य देवक्याम याचाितो अभ्यगात (श्रीमद भागवतम १.८.३३) । वसुदेव और देवकी नें भगवान से प्रार्थना की: "हमें आप की तरह एक पुत्र चाहिए । यही हमारी इच्छा है ।" हालांकि वे विवाहित थे, वे थे, उन्होंने किसी भी बच्चे को जन्म नहीं दिया । उन्होंने खुद को संलग्न किया तपस्या में, गंभीर तपस्या । तो श्री कृष्ण उनके सामने आए: "आप क्या चाहते हो ?" "अब हम आप की तरह एक बच्चा चाहते हैं ।" इसलिए यहां यह कहा गया है: वसुदेवस्य देवक्याम याचित: याचित: । "श्रीमान, हम आप की तरह एक पुत्र चाहते हैं ।" अब, एक और भगवान की संभावना कहाँ है ? श्री कृष्ण भगवान हैं । भगवान दो नहीं हो सकते हैं ।

भगवान एक हैं । तो कैसे एक और भगवान हो सकता है वसुदेव और देवकी का बेटा बनने के लिए ? इसलिए भगवान सहमत हुए कि "एक और भगवान का पता लगाना संभव नहीं है । तो मैं अापका पुत्र बनूँगा ।" तो लोग कहते हैं कि क्योंकि वसुदेव और देवकी अपने बेटे के रूप में श्री कृष्ण को चाहते थे, वे अवतरित हुए । केचित । कोई कहता है । वसुदेवस्य देवक्याम याचित: | अनुरोध किए जाने पर, प्रार्थना किए जाने पर, अभ्यगात, वे अवतरित हुए । अजस त्वम अस्य क्षेमाय वधाय च सुर द्विषाम । दूसरे भी वही बात कहते हैं, जैसे मैं समझा रहा था । परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम (भ गी ४.८) । असल में श्री कृष्ण अपने भक्त को शांत करने के लिए आते हैं । जैसे वे अपने भक्त, वसुदेव और देवकी को संतुष्ट करने के लिए, शांत करने के लिए अवतरित हुए । लेकिन जब वे आते हैं, वे अन्य काम करते हैं । वो क्या हे ? वधाय च सुर द्विषाम । वधाय मतलब हत्या । सुर-द्विषाम ।