HI/BG 3.33: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:29, 30 July 2020
श्लोक 33
- सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
- प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥३३॥
शब्दार्थ
सदृशं—अनुसार; चेष्टते—चेष्टा करता है; स्वस्या:—अपने; प्रकृते:—गुणों से; ज्ञानवान्—विद्वान्; अपि—यद्यपि; प्रकृतिम्—प्रकृति को; यान्ति—प्राह्रश्वत होते हैं; भूतानि—सारे प्राणी; निग्रह:—दमन; किम्—क्या; करिष्यति—कर सकता है।
अनुवाद
ज्ञानी पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है, क्योंकि सभी प्राणी तीनों गुणों से प्राप्त अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं | भला दमन से क्या हो सकता है?
तात्पर्य
कृष्णभावनामृत के दिव्य पद पर स्थित हुए बिना प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त नहीं हुआ जा सकता, जैसा कि स्वयं भगवान् ने सातवें अध्याय में (७.१४) कहा है | अतः सांसारिक धरातल पर बड़े से बड़े शिक्षित व्यक्ति के लिए केवल सैद्धान्तिक ज्ञान से आत्मा को शरीर से पृथक् करके माया के बन्धन से निकल पाना असम्भव है | ऐसे अनेक तथाकथित अध्यात्मवादी हैं, जो अपने को विज्ञान में बढ़ा-चढ़ा मानते हैं, किन्तु भीतर-भीतर वे पूर्णतया प्रकृति के गुणों के अधीन रहते हैं, जिन्हें जीत पाना कठिन है | ज्ञान की दृष्टि से कोई कितना ही विद्वान् क्यों न हो, किन्तु भौतिक प्रकृति की दीर्घकालीन संगति के कारण वह बन्धन में रहता है | कृष्णभावनामृत उसे भौतिक बन्धन से छूटने में सहायक होता है, भले ही कोई अपने नियत्कर्मों के करने में संलग्न क्यों न रहे | अतः पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हुए बिना नियत्कर्मों का परित्याग नहीं करना चाहिए | किसी को भी सहसा अपने नियत्कर्म त्यागकर तथाकथित योगी या कृत्रिम अध्यात्मवादी नहीं बन जाना चाहिए | अच्छा तो यह होगा की यथास्थिति में रहकर श्रेष्ठ प्रशिक्षण के अन्तर्गत कृष्णभावनामृत प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाय | इस प्रकार कृष्ण की माया के बन्धन से मुक्त हुआ जा सकता है |