HI/BG 8.25: Difference between revisions
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:तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥२५॥ | |||
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Latest revision as of 11:20, 5 August 2020
श्लोक 25
- धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
- तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥२५॥
शब्दार्थ
धूम:—धुआँ; रात्रि:—रात; तथा—और; कृष्ण:—कृष्णपक्ष; षट्-मासा:—छह मास की अवधि; दक्षिण-अयनम्—जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है; तत्र—वहाँ; चान्द्रमसम्—चन्द्रलोक को; ज्योति:—प्रकाश; योगी—योगी; प्राह्रश्वय—प्राह्रश्वत करके; निवर्तते—वापस आता है।
अनुवाद
जो योगी धुएँ, रात्री, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चन्द्रलोक को जाता है, किन्तु वहाँ से पुनः (पृथ्वी पर) चला आता है |
तात्पर्य
भागवत के तृतीय स्कंध में कपिल मुनि उल्लेख करते हैं कि जो लोग कर्मकाण्ड तथा यज्ञकाण्ड में निपुण हैं, वे मृत्यु होने पर चन्द्रलोक को प्राप्त करते हैं | ये महान आत्माएँ चन्द्रमा पर लगभग १० हजार वर्षों तक (देवों की गणना से) रहती हैं और सोमरस का पान करते हुए जीवन का आनन्द भोगती हैं | अन्ततोगत्वा वेपृथ्वीपर लौट आती हैं | इसका अर्थ यह हुआ कि चन्द्रमा में उच्चश्रेणी के प्राणी रहते हैं, भले ही हम अपनी स्थूल इन्द्रियों से उन्हें देख न सकें |