HI/BG 12.3-4

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोकस 3-4

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शब्दार्थ

ये—जो; तु—लेकिन; अक्षरम्—इन्द्रिय अनुभूति से परे; अनिर्देश्यम्—अनिश्चित; अव्यक्तम्—अप्रकट; पर्युपासते—पूजा करने में पूर्णतया संलग्न; सर्वत्र-गम्—सर्वव्यापी; अचिन्त्यम्—अकल्पनीय; च—भी; कूट-स्थम्—अपरिवॢतत; अचलम्—स्थिर; ध्रुवम्—निश्चित; सन्नियम्य—वश में करके; इन्द्रिय-ग्रामम्—सारी इन्द्रियों को; सर्वत्र—सभी स्थानों में; सम-बुद्धय:—समदर्शी; ते—वे; प्राह्रश्वनुवन्ति—प्राह्रश्वत करते हैं; माम्—मुझको; एव—निश्चय ही; सर्व-भूत-हिते—समस्त जीवों के कल्याण के लिए; रता:—संलग्न।

अनुवाद

लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वशमें करके तथा सबों के प्रति समभाव रखकर परम सत्य की निराकार कल्पना केअन्तर्गत उस अव्यक्त की पूरी तरह से पूजा करते हैं, जो इन्द्रियों कीअनुभूति के परे है, सर्वव्यापी है, अकल्पनीय है, अपरिवर्तनीय है, अचल तथाध्रुव है, वे समस्त लोगों के कल्याण में संलग्न रहकर अन्ततः मुझे प्राप्तकरते है |

तात्पर्य

जो लोग भगवान् कृष्ण की प्रत्यक्षपूजा न करके, अप्रत्यक्ष विधि से उसी उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयत्नकरते हैं, वे भी अन्ततः श्रीकृष्ण को प्राप्त होते हैं | "अनेक जन्मों केबाद बुद्धिमान व्यक्ति वासुदेव को ही सब कुछ जानते हुए मेरी शरण में आताहै|" जब मनुष्य को अनेक जन्मों के बाद पूर्ण ज्ञान होता है, तो वह कृष्ण कीशरण ग्रहण करता है | यदि कोई इस श्लोक में बताई गई विधि से भगवान् के पासपहुँचता है, तो उसे इन्द्रियनिग्रह करना होता है, प्रत्येक प्राणी की सेवाकरनी होती है, और समस्त जीवों के कल्याण-कार्य में रत होना होता है | इसकाअर्थ यह हुआ कि मनुष्य को भगवान् कृष्ण के पास पहुँचना ही होता है, अन्यथापूर्ण साक्षात्कार नहीं हो पाता | प्रायः भगवान् की शरण में जाने के पूर्वपर्याप्त तपस्या करनी होती है |आत्मा के भीतर परमात्मा का दर्शन करने केलिए मनुष्य को देखना, सुनना, स्वाद लेना, कार्य करना आदि ऐन्द्रिय कार्योंको बन्द करना होता है | तभी वह यह जान पाता है कि परमात्मा सर्वत्रविद्यमान है | ऐसी अनुभूति होने पर वह किसी जीव से ईर्ष्या नहीं करता – उसेमनुष्य तथा पशु में कोई अन्तर नहीं दिखता, क्योंकि वह केवल आत्मा का दर्शनकरता है, बाह्य आवरण का नहीं | लेकिन सामान्य व्यक्ति के लिए निराकारअनुभूति की यह विधि अत्यन्त कठिन सिद्ध होती है |