HI/BG 11.33

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 33

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥३३॥

शब्दार्थ

तस्मात्—अतएव; त्वम्—तुम; उत्तिष्ठ—उठो; यश:—यश; लभस्व—प्राह्रश्वत करो; जित्वा—जीतकर; शत्रून्—शत्रुओं को; भुङ्क्ष्व—भोग करो; राज्यम्—राज्य का; समृद्धम्—सम्पन्न; मया—मेरे द्वारा; एव—निश्चय ही; एते—ये सब; निहता:—मारे गये; पूर्वम् एव—पहले ही; निमित्त-मात्रम्—केवल कारण मात्र; भव—बनो; सव्य-साचिन्—हे सव्यसाची।

अनुवाद

अतःउठो! लड़ने के लिएतैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीतकरसम्पन्न राज्य का भोग करो |ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं औरहे सव्यसाची! तुम तो युद्ध मेंकेवल निमित्तमात्र हो सकते हो |

तात्पर्य

सव्यसाची काअर्थ है वह जो युद्धभूमि में अत्यन्त कौशल के साथतीर छोड़ सके | इस प्रकार अर्जुनको एक पटु योद्धा के रूप में सम्बोधित कियागया है, जो अपने शत्रुओं को तीर सेमारकर मौत के घाट उतार सकता है | निमित्तमात्रम्– "केवल कारण मात्र" यह शब्द भीअत्यन्त महत्त्वपूर्ण है | संसार भगवान् की इच्छानुसार गतिमान है | अल्पज्ञ पुरुषसोचते हैं कि प्रकृतिबिना किसी योजना के गतिशील है और सारी सृष्टि आकस्मिक है |ऐसा अनेकतथाकथित विज्ञानी हैं, जो यह सुझाव रखते हैं कि सम्भवतया ऐसा था, या ऐसा होसकता है, किन्तु इस प्रकार के "शायद" या "हो सकता है" का प्रश्न ही नहींउठता | प्रकृति द्वारा विशेष योजना संचालित की जा रही है | यह योजना क्याहै? यह विराट जगत् बद्धजीवों के लिए भगवान् के धाम वापस जाने के लिएसुअवसर (सुयोग) है | जब तकउनकी प्रवृत्ति प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व स्थापितकरने की रहती है, तब तक वे बद्धरहते हैं | किन्तु जो कोई भी परमेश्र्वर कीइस योजना (इच्छा) को समझ लेता है औरकृष्णभावनामृत का अनुशीलन करता है, वहपरम बुद्धिमान है | दृश्यजगत की उत्पत्तितथा उसका संहार ईश्र्वर की परमअध्यक्षता में होता है | इस प्रकार कुरुक्षेत्र कायुद्ध ईश्र्वर की योजनाके अनुसार लड़ा गया | अर्जुन युद्ध करने से मना कर रहा था,किन्तु उसे बतायागया कि परमेश्र्वर की इच्छानुसार उसे लड़ना होगा | तभी वह सुखीहोगा | यदिकोई कृष्णभावनामृत से पूरित हो और उसका जीवन भगवान् की दिव्य सेवा मेंअर्पित हो, तो समझो कि वह कृतार्थ है |