HI/Prabhupada 0132 - वर्गहीन समाज बेकार समाज है



Lecture on BG 7.1 -- Hyderabad, April 27, 1974

तो भगवद्गीता में हमें सब समाधान मिल जाएँगे मानवीय समस्याओं के, सब समाधान । चातुर् वर्णम मया सृष्टं गुण कर्म विभागश: (भ गी ४.१३) । जब तक तुम पूरे मानव समाज को चार भागों में विभाजित नहीं करते, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ... आपको विभाजन करना चाहिए। तुम नहीं कह सकते, "वर्गहीन समाज ।" वह बेकार समाज है । वर्गहीन समाज का अर्थ है बेकार समाज । एक बुद्धिमान उच्च वर्ग होना चाहिए, आदर्श वर्ग पुरुषों का, यह देखने के लिए "यहाँ मानव सभ्यता है ।" यह ब्राह्मण है । चातुर् वर्णम् मया सृष्टम् गुण कर्म (भ गी ४.१३) ।

जब तक लोग आदर्श पुरुषों को नहीं देखेंगे , कैसे वे अनुसरण करेंगे ? यद् यद् अाचरति श्रेष्ठस् लोकस् तद् अनुवर्तते (भ गी ३.२१) । ब्राह्मण की शरीर के मस्तिष्क के साथ तुलना की जाती है । जब तक मस्तिष्क नहीं है, इन हाथों और पैरों का उपयोग क्या है ? जब मस्तिष्क फिर जाता है, पागल, वह कुछ नहीं कर सकता । तो इस वर्तमान समय में, क्योंकि पूरे मानव समाज में ब्राह्मणवादी योग्य पुरुषों की कमी है ... यह अर्थ नहीं है ... ब्राह्मण केवल भारत के हिंदुओं के लिए नहीं हैं । पूरे मानव समाज के लिए है । कृष्ण कभी नहीं कहते हैं कि चातुर् वर्णम् मया सृष्टम् (भ गी ४.१३) भारत के लिए, या हिन्दुओं के लिए, या लोगों के एक वर्ग के लिए है । पूरे मानव समाज के लिए है, एक बहुत आदर्श बौद्धिक आदमी होना चाहिए ताकि लोग अनुसरण कर सकें ।

मस्तिष्क, समाज का मस्तिष्क। यह भगवद्गीता की शिक्षाएँ हैं । तुम नहीं कह सकते कि,"हम मस्तिष्क के बिना रह सकते हैं ।" अगर तुम्हारे शरीर से मस्तिष्क कट जाता है, सिर कट जाता है, तो तुम समाप्त हो जाअोगे । हाथ और पैर क्या करेंगे अगर वहाँ मस्तिष्क नहीं है ? तो वर्तमान समय में पूरे मानव समाज में मस्तिष्क की कमी है । इसलिए, यह अव्यवस्थित है । तो ज़रूरत है, जैसे भगवद्गीता में कहा गया है । मानव समाज, पूरी मानव सभ्यता का इस तरह से सुधार किया जाना चाहिए, कि ... पुरुषों का बौद्धिक वर्ग हैं, स्वाभाविक रूप से । लोगों का प्रथम श्रेणी का बौद्धिक वर्ग, द्वितीय श्रेणी का बौद्धिक, तृतीय श्रेणी, चौथी श्रेणी, एेसे । तो प्रथम श्रेणी का बौद्धिक व्यक्ति, ब्राह्मण होना चाहिए, ब्राह्मण की योग्यताएँ, और वे कृष्ण के प्रति जागरूक होने चाहिए । तब वे सही तरीके से पूरे समाज का मार्गदर्शन कर सकते हैं और कोई समस्या नहीं रहेगी । यह कृष्णभावनामृत आंदोलन है ।

तो यहाँ कृष्ण बता रहे हैं कि कृष्ण के प्रति जागरूक कैसे हो सकते हैं । यह ब्राह्मणों या पुरुषों के बौद्धिक वर्ग के लिए है । यह श्रीकृष्ण द्वारा वर्णित किया जा रहा है । वह क्या है ? मयासक्त-मन: । "मन मुझ में आसक्त होना चाहिए, कृष्ण ।" यह शुरुआत है । किसी भी तरह हमें यह करना है ... हमारा मन कुछ और करने के लिए संलग्न है । मन अलग नहीं किया जा सकता है । हमारी इतनी सारी इच्छाएँ हैं । तो मन का काम आसक्त होना है । इसलिए, मैं कुछ स्वीकार करता हूँ, मैं कुछ अस्वीकार करता हूँ। यह मन का काम है।

तो तुम शून्य नहीं हो सकते हो, तुम बिना चाह के नहीं बन सकते हो। यह संभव नहीं है। हमारी प्रक्रिया ... जैसे दूसरों की तरह, वे कहते हैं, "तुम चाह विहीन हो जाअो।" यह एक मूर्खतापूर्ण प्रस्ताव है। कौन चाह िबना रह सकता है? यह संभव नहीं है। अगर मैं इच्छा रहित हूँ, तो मैं एक मृत व्यक्ति हूँ । एक मृत व्यक्ति की इच्छा नहीं होती है । तो यह संभव नहीं है । हमें इच्छाओं को शुद्ध करना होगा । यह आवश्यक है । इच्छाओं को शुद्ध करो । सरवोपाधि विनिर्मुक्तम् तत् परत्वेन-निर्मलम् (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०) । इसे शुद्धिकरण कहा जाता है। निर्मलम् । तत्-परत्वेन । तत्-परत्वेन का अर्थ भगवान के प्रति जागरूक, कृष्ण चेतना, तब इच्छाएँ शुद्ध हो जाती हैं ।

हमें इच्छा विहीन नहीं होना है, लेकिन इच्छाओं को शुद्ध करना है । यही चाहए । इसलिए यहाँ यह कहा गया है, मयासक्त-मन: ... "तुम अपने मन की इच्छाओं को नहीं मार सकते हो, लेकिन तुम मुझ पर अपने मन को टिकाअो । " यही आवश्यक है। मयासक्त-मन: पार्थ । यही योग प्रणाली है । यही भक्ति योग कहलाया जाता है और यह प्रथम श्रेणी का योग कहालाया जाता है । यह भगवद्गीता वर्णित में है कि योगिनाम् अपि सर्वेषाम् मद-गतेनान्तर् अात्मना (भ गी ६.४७) । योगी, प्रथम श्रेणी का योगी, योगिनाम् अपि सर्वेषाम् ... "योग की अलग-अलग प्रणालियाँ हैं, लेकिन जिसने यह भक्ति योग स्वीकार कर लिया है, वह हमेशा मेरे बारे में सोच रहा है । "

जैसे यह लड़के और लड़कियों की तरह, उन्हें सिखाया जा रहा है कृष्ण के बारे में हमेशा सोचने के लिए, "हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे।" अगर,तुम भगवद्गीता पढ़ते हो और हरे कृष्ण मंत्र का जप करते हो, तुरंत तुम पूरा विज्ञान जान जाअोगे, कृष्ण से जुड़े रहने का । इसे मयासक्त-मन: कहा जाता है । मयासक्त-मन: पार्थ योगम् यन्जन्, योग का अभ्यास करने के लिए... यह भक्ति योग है । मद् अाश्रय: मद् अाश्रय: का अर्थ है, "मेरे निर्देशन में" या "मेरी सुरक्षा में" । अाश्रय ।