HI/Prabhupada 0313 - सभी श्रेय कृष्ण को जाता है



Lecture on SB 3.26.42 -- Bombay, January 17, 1975

भक्त का काम है महिमा करना । वह खुद के लिए कोई भी श्रेय नहीं लेता है । दरअसल, श्रेय लेने की कोई बात नहीं है । सभी श्रेय कृष्ण को जाता है । एक भक्त न तो दावा करता है, न यह संभव है । यहां तक ​​कि वह बहुत, बहुत बड़ा भक्त हो सकता है, वह अपने शानदार कार्यो के लिए किसी भी श्रेय का दावा कभी नहीं करेगा । उसकी शानदार गतिविधियों का मतलब है कृष्ण को गौरवशाली बनाना । यही उसकी शानदार गतिविधियॉ है, न कि तथाकथित भौतिकवादी की तरह, वह लेता है, श्रेय लेना चाहता है । नहीं । स्व कर्मणा तम अभ्यर्च्य सिद्धिम विन्दति मानव: (भ.गी. १८.४६) । स्व कर्मणा । तुम काम के किसी भी स्वरूप में लगे हो सकते हो, काम के किसी भी विभाग में । लेकिन अपनी मेहनत के सहारे तुम भगवान कृष्ण के अस्तित्व को स्थापित करो । और जो कुछ भी किया जा रहा है, यह कृष्ण के विशेषज्ञ प्रबंधन द्वारा किया जा रहा है । सूरज ठीक समय में उगता है, और ठीक समय में अस्त होता है । और तापमान, विभिन्न मौसम के अनुसार, हिलचाल, उत्तरायण, दक्षिणायण - सब कुछ परम भगवान के आदेश के तहत ऐसी निपुणता से किया जाता है ।

मयाध्यक्षेण प्रकृति: ([[HI/BG 9.10|भ.गी. ९.१०]) । यह मत सोचो कि सूरज स्वचालित रूप से इतनी अच्छी तरह से काम कर रहा है । स्वतः नहीं । मालिक हैं, कृष्ण । यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृत-काल-चक्र: सूरज इतना शक्तिशाली पदार्थ है इस ब्रह्मांड के भीतर । कई लाखों सूर्य हैं । यह केवल एक ही सूरज है - लेकिन यह कृष्ण के अादेश का पालन कर रहा है । यच-चक्षुर एश सविता सकल-ग्रहाणाम राजा समस्त सुर मूर्तिर अशेश तेजा: अशेश-तेजा:, असीमित प्रकाश, असीमित आग, असीमित गर्मी । अशेश । अशेश-तेजा: । सूरज की रोशनी, सूरज की गर्मी के साथ कोई तुलना नहीं है । इस ब्रह्मांड के भीतर कोई तुलना नहीं है । असीमित । लाखों और लाखों वर्षों के लिए, यह सूर्य से प्रकाश और गर्मी आ रही है, लेकिन कोई कमी नहीं है । यह लाखों साल पहले जो था वही है, और लाखों सालों के लिए तुम्हे प्रकाश और गर्मी के बाद, प्रकाश और गर्मी की वही मात्रा अभी भी है ।

तो अगर यह संभव है एक भौतिक बात के लिए, कि असीमित गर्मी और प्रकाश देने के बाद यह वैसे ही रहता है, इसी तरह, परम भगवान, अपनी शक्ति के विस्तार के द्वारा, उनकी ऊर्जा से, वे वही रहते हैं । वे कम नहीं होते हैं । पूर्णस्य पूर्णम अादाय पूर्णम एव अवशिश्यते (ईशोपनिषद मंगलाचरण) । तो अगर हम एक भौतिक वस्तु में देख सकते हैं, कि गर्मी जो निकल रही है कई लाखों और लाखों सालो से - यह वही गर्मी रहती है, वही गर्मी रहती है, वही प्रकाश । ऐसा क्यों संभव नहीं है परम भगवान के लिए ? इसलिए ईशोपनिषद हमें बताता है कि पूर्णस्य पूर्णम अादाय पूर्णम एव अवशिश्यते । अगर तुम कृष्ण से कृष्ण की सारी ऊर्जा ले लेते हो, फिर भी, पूरी ऊर्जा रहती है ।

लेकिन तुम्हे आश्चर्य होगा आजकल । आधुनिक भगवान - इतने सारे "आधुनिक परमेश्वर" हैं; मैं नाम नहीं लेना चाहता । लेकिन एक आधुनिक भगवान, उन्होंने अपने शिष्य को अपनी शक्ति दे दी, अोर जब, जब वह चेतना में आया, वह रो रहा था । शिष्य नें गुरु से पूछा "साहब, आप रो क्यों रहे हैं?" "अब मैंने सब कुछ समाप्त कर दिया है । मैंने तुम्हे सब कुछ दे दिया है । मैंने तुम्हे सब कुछ दे दिया है, इसलिए मैं अब खत्म हो गया हूँ ।" वह आध्यात्मिक नहीं है । वह भौतिक है । मेरे पास सौ रुपए हैं । मैं तुम्हें सौ रुपए का भुगतान करता हूँ, तो फिर मेरी जेब खाली है । लेकिन कृष्ण एसे नहीं हैं । कृष्ण हजारों और लाखों कृष्ण बना सकते हैं, फिर भी, वे कृष्ण हैं । यही कृष्ण हैं । शक्ति कभी समाप्त नहीं होती है । यही कहा जाता है पूर्णस्य पूर्णम अादाय पूर्णम एव अवशिश्यते (ईशोपनिषद मंगलाचरण) । तो यह नकली भगवान हमारी मदद नहीं करेगा । असली भगवान । असली भगवान,

ईश्वर: परम: कृष्ण:
सच-चिद-अान्नद विग्रह:
अनादिर अादि गोविन्द:
सर्व कारण कारणम
(ब्रह्मसंहिता ५.१) |

सर्व-कारण-कारणम, वे कभी समाप्त नहीं होते हैं । वे कभी नहीं थकते हैं । यह कहा जाता है

यस्यैक-निश्वासित कालम अथावलम्ब्य
जीवन्ति लोम विलजा जगद अंड नाथा:
विष्णुर महान स इह यस्य कला विशेषो
गोविन्दम अादि पुरुषम तम अहम भजामि
(ब्रह्मसंहिता ५.४८)

लाखों ब्रह्मांड उनकी श्वास अवधि के भीतर बाहर आ रहे हैं, और उनका विनाश होता है जब वे सांस अंदर लेते हैं । इस तरह सृष्टि बाहर आ रही है । जगद अंड नाथा: । जगद अंड नाथा: । जगद अंड का मतलब है ब्रह्मांड, और नाथ, ब्रह्मांड के भगवान, मतलब है ब्रह्माजी । तो उनके जीवन की एक अवधि है । और जीवन की वह अवधि क्या है? महा विष्णु की श्वसन लेने की अवधि ।